Monday 5 December 2016

अटल बिहारी वाजपेयी की दो कविताएँ

कल अटल बिहारी वाजपेयी की कवितायों का एक संकलन मिला। उसे धीरे-धीरे पढ़ रहा हूँ। अभी तक की बहतरीन अलफाज़ जो उनकी किताब से पढ़ें हैं, वह हैं: 

हाँ, खोज का सिलसिला न रूके,
धर्म की अनुभूनि,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा।
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।

(रूद्ध - बंद, यक्ष - महाभारत में से एक प्राणी जो कि पाँडवों से सवाल पूछता है।)

इस के इलावा दो और कवितायों ने दिल को छू लिया है।

गीत नही गाता हूँ


बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे है,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ,
गीत नही गाता हूँ।

लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे-सा शहर,
अपने के मेले में मीत नही पाता हूँ,
गीत नही गाता हूँ।

पीठ में छुरी-सा चाँद,
राहू गया रेखा फाँद,
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बँध जाता हूँ,
गीत नहीं गाता हूँ।

गीत नया गाता हूँ


टूटे हुए तारों से फूटे वासन्ती स्वर,
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात,
कोयल की कुहुक रात,
प्राची में अरूणिमा की रेख देख पाता हूँ।
गीत नया गाता हूँ।

टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी?
अन्तर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी।
हार नही मानूँगा,
रार नई ठानूँगा,
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ।
गीत नया गाता हूँ।


(वासन्ती स्वर – वसंत के मौसम के दौरान सुनने वाली आवाज़ें, कुहुक – कोयल की आवाज़ वाली, प्राची – पूरब दिशा, अरूणिमा – सुबह की रोशनी जिसे पाक माना जाता है)