आज
आॅफिस से आते वक्त एक रिक्शेवाले
ने एक घर का पता पुछा। पता
अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था
जिसे पढने में वह बुढा रिक्शेवाला
असमर्थ था। वह अपने ग्राहक
से भी नही पूछ सकता था क्यूंकि
रिक्शे में किसी ग्राहक की
बजाये सामान का एक डब्बा था।
बेचारा। लेकिन इत्तेफाकन
अच्छी बात यह हुई कि जिस घर
में वह जाना चाहता था,
उस
का नंबर 2115
था
और उस ने पता मकान नंबर 2124
के
सामने खडे हो कर पुछा था। इस
लिए मैं और अनीता (जो
दफतर में साथ ही काम करती है)
उस
के साथ चल पडे और घर दिखा दिया।
इस
बात ने मुझे दो बातें सोचने
पर मजबूर किया।
पहली
तो यह कि क्या वह रिक्शेवाता
पढ नही सकता था?
अगर
वह पढने के नाकाबिल था तो उस
की ज़िन्दगी कैसी होगी?
और
उस की ना पढ पाने की हालात का
जिम्मेवार कौन है?
वह
खुद,
उस
के माँ-बाप,
सरकार
या,
खलील
जिबरान की नज़रों में,
हम
सब लोग जो कि अपनो का ही ख्याल
रखने में नाकाबिल सिद्ध हो
रहे हैं?
दूसरी
बात जो मेरे ज़हन में आयी वो
यह थी कि अगर वह रिक्शेवाला
पढ सकता था तो जिस ने भी उसे
पैसे दे कर भेजा,
उस
ने हिन्दी या पंजाबी या उस
रिक्शेवाले की भाषा में पता
क्यूँ नही लिखा?
क्या
उसे किसी स्थानिय ज़ुबान का
इलम नही था?
या
फिर अंग्रेज़ी में लिखना रौब
दिखाने का एक तरीका था?
मालूम
नही।